Wednesday 13 June 2012


प्रतीक्षा

हैं यह कैसी प्रतीक्षा ----
जहां सागर भी सम्मुख हैं
और जहां किनारा भी निकट हैं
जहां मल्लाह भी किश्ती लिए खडा हैं
और पतवार भी बाजू में पडी हैं
मंजिल का भी पता हैं
पर बंधे हैं पहाड पैरों में
जो बढने ही देते कुछ भी आगे
और आवाज दे रहा हैं प्रियतम मेरा ---
हैं पलके विस्तारित क्षितिज सी
पर कर नही सकती सामना
सूर्य का , चंद्र का ,
और दिख रहा हैं प्रियतम मेरा—
हैं नीरवता तट पर
पर लहरे कर रही हैं शोर भीतर ही भीतर
पर्वतों के शिखरों से ऊंची ये उदासी मेरी
अन्दर बंद  कमरे में बस सिसकती हैं,
देखकर भी साहस छोटे-छोटे परिन्दो का
जो करते हैं यात्रा दूर परदेस की
पर मै तय नही कर पाता
बस एक छोटा सा रास्ता--
करता रहता हूं बस प्रतीक्षा
है ये कैसी प्रतीक्षा ?

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