Saturday 11 May 2013


आप यही सोच रहे होंगे
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यंहा सर्द हवांए हैं
यहां घनी धुंध हैं
यहां कुछ दिखाई नही देता हैं
तेज लू के थपेडे लग रहैं
लोग मुंह पर कपडा लपेटे हैं
बाढ भी आई हुई हैं
सागर में चंचल लहरे भी आजा रही हैं
नदी भागी जा रही हैं
झरने झर रहे हैं
पर्वत पर बर्फ पिघलती हैं
अवनी व्यस्त हैं सृजन में
अंबर तारो से भरा है
निशा चांद से संवाद कर रही हैं
दर्द कही व्यक्त हो रहा हैं
संगीत कही बज रहा हैं
कही मातम छाया हैं
भ्रमर गुंजायमान हैं
प्रमिका विरह में हैं
प्रेमी कही त्रस्त तो कही मस्त हैं
और ना जाने क्या क्या हो रहा हैं

यह ब्रम्हांड का चित्रण ही होगा
आप यही सोच रहे हैं  ना,,,,,,

नही, यह मेरी कविता की चंद पंक्तियां हैं
जिनके इर्द गिर्द मै अक्सर तानाबाना बुनता रहता हूं
कुछ आपके लिए
कुछ अपने लिए,,,

राम किशोर उपाध्याय

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