Monday 5 August 2013

मेरे शहर में शब्दों की जुगाली
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शब्दों के छप्पर से 
विचारों की बूंदे 
तेज़ बारिश में ही गिरती हैं 

लिपा पुता आंगन जल्दी बह जाता हैं 
पर यथास्थिति का ढीठ मोटा बिछौना 
बडे  संघर्ष के बाद ही भीग पाता हैं

लोग अब पक्के फर्श बनाते
छप्पर के स्थान पर
लिंटल डालते
विचारों की बगिया में
घास के स्थान पर कैक्टस उगाते हैं

और

खुले घरों के स्थान पर
कबूतरखानेनुमा फ्लेटों में
खुद ही नहीं मस्तिष्क को
भी बंद करके सो जाते
सोचकर हम सुखी
तो जग सुखी
और अपने कष्ट पर
टेलीविज़न वालों को बुलाकर
सरकार और संसार की
बखिया उधेड़ते हैं
शब्दों की बरसों से रुकी जुगाली करते है
परन्तु शब्दों के छप्पर से एक बूंद भी
अपने सुख के विरोध में
अपनी खोपड़ी पर नहीं झेल पाते हैं. 

Ramkishore Upadhyay

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