Saturday 29 March 2014

तुम आ ही जाते हो
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यह कैसी अनुभूति का स्पर्श है
अब स्थूल रह ही कहाँ गया है, केवल स्थूलेतर है
और सूक्ष्म जाने किधर है, यह काल जानता हैं
'स्व' हुआ स्वाहा, 'समाधि' सी लगी है
फिर भी न जाने तुम आ ही जाते हो
कभी सांस बनकर
कभी धडकन बनकर
रामकिशोर उपाध्याय

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