Saturday 29 November 2014

रेत में तैरते....ग़ज़ल


{बहर =२  १ २, २ १ २,२ १ २ ,२ १ २, २ २ २}
पदांत = देखे 
समान्त = अर 
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रेत में तैरते बरफ के कुछ समन्दर देखे,
चाँद को घूरते ख्वाब के कुछ बवन्डर देखे |
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जीत होती रहे यह सदा संभव हुआ हैं कब,
धूल को चाटते एकदिन सब सिकंदर देखे |
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जो नचाते कभी अंगुली पर सभी शेरों को   
आजकल तो भिक्षा मांगते वो कलंदर देखे |      
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पुन्य का लोभ है दान भी सब दिखावा है ये,
ढोंग पर चल रहे मस्जिदें और मन्दर देखे |
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मजलिशें रो रही गालिबों और मीरों को अब,
शायरों के भेष में नये आज बन्दर देखे | 
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न्याय शासन खड़े सर झुकाके सभी अर्थ समक्ष,
मौज करते कभी चोर भी जेल अन्दर देखे |
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माघ के माह में फलक पर आम ये मंजर है,
ऊन  की चादर खरीदते सूर्य चन्दर देखे |
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रामकिशोर उपाध्याय 

 





Thursday 20 November 2014

ग़ज़ल..दर्द भरी आहों से..

एक गीतिका
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2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2
दर्द भरी आहों से शोर नही निकला,
अबतक यादों से वो दौर नहीं निकला |
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इस बस्ती में रहती है तो बस नफरत,
पर हर इंसा आदमखोर नही निकला |
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इस दुनियां की अपनी ही रीत निराली,
साधु जिसे हम समझे चोर वही निकला |
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खूब उडाते हैं दावत बाहर बेटे ,
पर माँ की खातिर एक कौर नही निकला
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कहते है पोलिटिशियन सभी इक जैसे,
कम से कम वो रिश्वतखोर नही निकला |
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ramkishor upadhyay
20.11.2014 

ग़ज़ल

एक गीतिका *************
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खिल गए फूल से याद इक आ गई,
शहद की बूंद सी जीभ पर छा गई |
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नैन भी शोख थे,बात भी मदभरी,
प्यार के मांगने की अदा भा गई |
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चाल में मस्तियां,गात में बिजलियाँ,
छिन गयी चैन,वो गज़ब सा ढा गई |
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फूल से वह उठी,चाँद पर जा खिली,
ख्वाब की बात जैसे जमीं पा गई|
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टूटने से बची वो सुमन की कली,
भ्रमर सेना कहीं से तभी आ गई |
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रामकिशोर उपाध्याय
17.11.2014