Friday 18 December 2015

रेत का बिछौना


रेत का बिछौना 
----------------
सागर की लहरों का पालना
रेत का बना बिछौना
आज फिर वही मन चाहता है 
बन जाऊं माँ की गोद में पहले वाला छौना
खेलूं वही अमुवा की डाली पर
यारों के संग मौज मनाऊं
देख -देखकर तुझे खुश हो लूं
रूठ रूठकर फिर मान जाऊं
न कोई बोले तो फिर होले से उसके पीछे हो लूं
हाट बाजार से फिर ले आऊँ
जिद करके बजने वाला नया  खिलौना ........
सागर की लहरों का पालना
रेत का बना बिछौना ..........
झूम-झूमकर गीत मैं गा लूं
आंख मूंदकर तुमको छू लूं
डांट पड़े बाबा की
तो शुरू कर दूं फिर जोर से रोना
स्वप्नों की क्यारी से तोड़कर
फूलों का बना डालूँ मुकुट-हार
ले जाऊं फिर उसे छिपाकर
अपने प्रियतम के द्वार
मुड़कर अब फिर क्या देखूं
सामने खड़ा विकट संसार
कल था सपना
आज है अपना
मैली या उजली चादर मन की
अब तो रोज इसे पहनना और ओढना .........
सागर की लहरों का पालना
रेत का बना बिछौना ......
*
रामकिशोर उपाध्याय

Thursday 19 November 2015

नवगीत (जैसा )











कुछ पल के मुसाफिर हो
यादों की लकीरें  न खीचों
*
कुछ पल के मुसाफिर हो
यादों की लकीरें न खीचों
ये तिनकों के घरोंदे हैं
वादों की दीवारें न खींचों
कुछ पल के मुसाफिर हो
यादों की लकीरें न खीचों -1
*
बिखरी हैं लटें गालों पर
ऑंखें भी हैं कुछ गहरी गहरी
राग मचलता होठों पर
मन वीणा के तार न खीचों
कुछ पल के मुसाफिर हो,
यादों की लकीरे न खीचों -2
*
ऑखें चमकती शोखी से
पर नैतिकता बनी है प्रहरी
स्पर्श को आकुल मन
कल आज की रार न खींचों
कुछ पल के मुसाफिर हो ,
यादों की लकीरें न खीचों – 3

*
शुभ्र भाल पर पूर्ण चन्द्र
तारे बिखरे मुखमंडल पर
दरक रही हैं नींव किले की
लाज-हया की बाड़ न खीचों
कुछ पल के मुसाफिर हो,
यादों की लकीरें  न खीचों – 4
*
सूर्य दमकता मोहक बन
कानों में लटकते कुंडल पर
पिघल रही है बर्फ शिखर पर
सागर पर लकीरें  न खींचों
कुछ पल के मुसाफिर हो,

यादों की लकीरे न खीचों – 5
यादों की लकीरे न खीचों
*
कुछ पल के मुसाफिर हो
यादों की लकीरें न खीचों
ये तिनकों के घरोंदे हैं
वादों की दीवारों न खींचों
कुछ पल के मुसाफिर हो
यादों की लकीरे न खीचों -1
*
बिखरी हैं लटें गालों पर
ऑंखें भी हैं कुछ गहरी गहरी
राग मचलता होठों पर
मन वीणा के तार न खीचों
कुछ पल के मुसाफिर हो,
यादों की लकीरें  न खीचों -2
*
ऑखें चमकती शोखी से
पर नैतिकता बनी है प्रहरी
स्पर्श को आकुल मन
कल आज की रार न खींचों
कुछ पल के मुसाफिर हो ,
यादों की लकीरे न खीचों – 3

*
शुभ्र भाल पर पूर्ण चन्द्र
तारे बिखरे मुखमंडल पर
दरक रही हैं नींव किले की
लाज-हया की बाड़ न खीचों
कुछ पल के मुसाफिर हो,
यादों की लकीरें न खीचों – 4
*
सूर्य दमकता मोहक बन
कानों में लटकते कुंडल पर
पिघल रही है बर्फ शिखर पर
सागर पर किनारे न खींचों
कुछ पल के मुसाफिर हो,
यादों की लकीरें न खीचों – 5
*
रामकिशोर  उपाध्याय 

Friday 16 October 2015

नीली धूप में ...........

आज हवा
नीचे से ऊपर को बह रही
आदमी 
हमे अब कुत्ता पुचकार रहा है
घोड़ा
अब गाड़ी में बैठा सोच रहा
और उसे कोचवान खींच रहा
भगवान भक्त को ढूंढता
टीवी पर चीख चीख कर पुजारी का मोल पूछता
घड़े को जल पी रहा
मछलियाँ अब हवा में तैर रही
बकरियां अब खुद अपना दूध पी रही
हाथ की लकीरों को
भाग्य पढ़ रहा है ..
पेड़ की शाख पर बीज उग रहा
बेटा अब माँ को जन्म दे रहा..
सूरज की रौशनी को दिया चाट रहा
सूरज ............
पश्चिम से पूरब को चल रहा है
घर के ईशान कोण में
उजाला भी है तो कैसा है ..........सुबह का
आंख खुलते ही ...........
सबकुछ गड्ड मड्ड है ...
उफ्फ क्या यह देख रहा हूँ ?
सर पकड़कर बैठ भी नही सकता ........
धूप भी कुछ गीली गीली है
अरे यह भी तो नीली नीली है ..
काले आसमान में
छाँव धरुं भी तो कहाँ ................
इस नीली धूप में
*
रामकिशोर उपाध्याय
Comment

कुछ तो है..............


---------------------
शतधा आबद्ध 
होकर दौड़ता हूँ उस गली में 
जो जाती है तुम्हारे ह्रदय की कली में 
पर आते ही तुम्हारा घर निकट
जाने क्या हो जाता है विकट 
जो थम जाते है पाँव 
कुछ तो है जो रोकता है मुझे ..............
शतधा प्रतिबद्ध 
होकर सोचता हूँ उस उपवन का 
खिलते हैं जहाँ जूही और चंपा 
पर उन्हें वेणी में गूथने से पूर्व 
जाने क्या घटित होता है अपूर्व 
कुछ तो है जो मोड़ता है मुझे .........
शतधा कटिबद्ध 
होकर प्राप्त कर लेना चाहता हूँ तनमन 
और धरा को छोड़कर उड़ जाता हूँ गगन 
पर न जाने क्षितिज आने तक 
जाने क्या होता है अदृश्य 
जो टूट जाते है पंख 
कुछ तो है जो घूरता है मुझे ................
सोचता ही रहता हूँ क्यों 
एक पड़ाव पर आकर एन्द्रिक अनुभूतियाँ अब हो जाती है निर्मूल 
और हो जैसे सेमर का फूल 
कुछ भी नाम दे सकते है ..
निष्ठुर ..निर्दयी 
या निर्मोही 
मगर यह है प्रेम का पर्व
जिसपर हमे है गर्व 
यह तो है गीत ..
साँसों की द्रुत विलंबित लहरों का संगीत .......
समय को बांटते प्रहरों से प्रतीत ...
परन्तु हूँ और रहूँगा 
सदैव 
आबद्ध 
प्रतिबद्ध 
कटिबद्ध 
बस प्रेम में ..
बस प्रेम में ...........
*
रामकिशोर उपाध्याय

Tuesday 14 July 2015

अपना कह देने तक .....


********************
नहीं होता
इतना सहज
किसी को अपना कह देना
यह यात्रा
कभी -कभी एक क्षण में पूरी हो जाती हैं
कभी -कभी
प्रतीक्षा युगों युगों तक करनी पड़ती हैं
बरगद की जटाएँ
जब धरती में समाकर तन जाती है
और तने पर परत दर परत
चढ़ती चली जाती है किसी पीड़ा के स्राव की
और किसी अतृप्त कामना के छोटे-छोटे सींग
बरस दर बरस लम्बे होकर उसके शरीर पर जब भार हो जाते है
तब भी  अस्थि पिंजर में
कैद इस नश्वर देह को
करना ही होता है अनुपालन मन का
और मन
सूरज की गर्मी से नही
चाँद की नरमी से भी नही
चलता है तो
लहरों पर सवार होकर
आँखों के शासन से
और करेगा मन उनकी
प्रतीक्षा .
अपना कह देने तक .......
*
रामकिशोर उपाध्याय

Friday 10 July 2015

एक गीतिका/ग़ज़ल *















============
दे गई दर्द जब हर दवा क्या कहें
हो गया वक्त ही बेवफ़ा क्या कहें
*
इश्क में चाक दामन उसी ने किया
पर मिली बस हमीं को सजा क्या कहें
*
साँस सरगम बनी जब बजी प्रेमधुन
क्या किसी ने कहा या सुना क्या कहें
*
प्यार की हर तमन्ना हुई थी जवां
आ रही है अभी तक सदा क्या कहें
*
प्यास जब कुछ बढ़ी दूर थी वो नदी
बीच मझधार जा खुद फँसा क्या कहें
*
रामकिशोर उपाध्याय
10 जुलाई 2015

Thursday 9 July 2015

आओ जग से प्रीत निभाये ....



गीत
-----
*
नफरत में डूबा जग सारा
दहशत की बहती है धारा
बिछड़ों को फिर मीत बनायें,
आओ जग से प्रीत निभाये |1
*
पथ में कांटे लोग बिछाते,
बिन कारण के खूब सताते ,
अब इनकी ये रीत मिटायेे ,
आओ जग से प्रीत निभाये | 2
*
मैं हिन्दू हूँ तू है मुल्ला ,
इक ही रब तो क्यों है हल्ला
मिलकर अब यह भीत गिराये
आओ जग से प्रीत निभाये | |3
*
जग को देख उठे जब शंका,
घर-भेदी ढाये जब लंका,
रामराज्य सा द्वीप बनाये |
आओ जग से प्रीत निभाये |4
*
प्रेमभाव से अनुप्राणित कर,
जातपात का भेद मिटाकर,
मिलजुलकर हम दीप जलाये ,
आओ जग से प्रीत निभाये |5
*
रामकिशोर उपाध्याय

क्योंकि मैं धरती हूँ .....













चट्टान 
तो कठोर ऊन्नत होगी ही 
वारिद 
तो धूम्र व्यापक जलयुक्त होगा ही
गगन
तो नीलवर्णी अनंत आच्छादित होगा ही
वायु
तो अल्पभार और गतिमान होगी ही
सागर
तो बृहद तरल होगा ही
सबके अहम को सुनकर धरा बोल पड़ी
विशाल चट्टान
विस्तृत सागर
धूम्रवर्णी मेघ
चंचल पवन
सभी को अपने वक्षस्थल पर धारण करती हूँ
समय पर क्षितिज पर गगन संग रमण करती हूँ
जब मनुज हल से भेदता हूँ मुझे
मैं बस मुस्करा देती हूँ
और प्रकृति से जनन का भार लेकर जिया करती हूँ
फिर भी शांत सहज सरल रहा करती हूँ
क्योंकि मैं धरती हूँ ............
*
रामकिशोर उपाध्याय

Thursday 2 July 2015

एक ग़ज़ल

ग़ज़ल 
***
ठहरी डगर को फिर घुमाकर देखना
उजड़े शहर को फिर बसाकर देखना
*
गर चाहता है जिंदगी में तू अमन
कुछ भूल जा,कुछ को भुलाकर देखना
*
सागर किनारे प्यास बुझती है कहीं
कुछ बादलों को घर बुलाकर देखना
*
देगा दुआ तुझको,,मिलेगी बस ख़ुशी
भूखे बशर को कुछ खिलाकर देखना
*
मैं भूल सकता हूँ तुझे मुमकिन नहीं
तुम इस फ़साने को भुलाकर देखना
*
गर चाहता है रब मिले तुझको कभी,
दिल से अना,नफरत मिटाकर देखना
*
दुनिया चली है प्यार से ही आजतक
इक प्यार की शम्मा जलाकर देखना
*
रामकिशोर उपाध्याय 

एक छोटी सी कविता




मेरे सपने
अपनेपन को तरसे
कुछ तेरे मन में सूखे
कुछ मेरी आँखों से बरसे
साँझ ढले ही सो गए सारे
सुबह उठे
तो जा नभ में गरजे
मेरे सपने
अपनेपन को तरसे .....
-
रामकिशोर उपाध्याय

ग़ज़ल

ग़ज़ल
=====

बंदगी के सिवा ना हमें कुछ गंवारा हुआ
आदमी ही सदा आदमी का सहारा हुआ
*
बिक रहे है सभी क्या इमां क्या मुहब्बत यहाँ
किसे अपना कहे,रब तलक ना हमारा हुआ
*
अब हवा में नमी भी दिखाने लगी है असर
क्या किसी आँख के भीगने का इशारा हुआ
*
आ गए बेखुदी में कहाँ हम नही जानते
रह गई प्यास आधी नदी नीर खारा हुआ
*
शाख सारी हरी हो गई ,फूल खिलने लगे
यूँ लगा प्यार उनको किसी से दुबारा हुआ
*
रामकिशोर उपाध्याय

सुनो लम्बरदार .



=
सत्ता गढ़ रही है तर्क
हो रही है कांव-कांव
यह चौपड़ है नई
मगर पुराने मोहरों पर लगे है दांव
यहीं पर शकुनी भी था कभी
जिसने लेने नही दिए दस गाँव
वह जमाना और था ..
सत्ता के लिए सिर्फ घर में ही शोर था
और प्रजा थी खामोश
राजा रहता था मदहोश
बदली है फ़िज़ाये आज
प्रजा करती है अगर कुछ सवाल
तो गिरने लगते है ताज
हवा भी बहती है
तो जानते है लोग किधर जायेगी
आंधी अगर चल पड़ी
जनता बिफर जायेगी
पुरवाई में उठा है
कुछ बवाल
आ रही है तबेले से आवाज
हो हलाल ,हो हलाल
क्या अब भी रहेगा कोई तटस्थ ..
क्या हो रही है प्रतीक्षा
किसी मुहूर्त की
आज भीष्म ही तो प्रजा है
अयन का उसे नहीं है इंतजार
बार हो रहा है शंखनाद
मगर सुनते कहाँ है लम्बरदार
प्रजा का चैन है तिरोहित
सुनो लम्बरदार ....
*
रामकिशोर उपाध्याय

Wednesday 3 June 2015

आज ...मैं क्या कहूँ ? ============











आज ...मैं क्या कहूँ ?
============
आज सब्जी की जगह उग रहे है कुकरमुत्ते
सरेआम अब भौंक रहे है. आदमी जैसे हो ये कुत्ते .................
मिल रही है भर पेट अब प्रोटीन
मगर इंसानियत अब हो गयी एक दो तीन
छल रही है अब यहाँ दाल रोटी
आदमी भी क्या करे ,फट गयी है जब साड़ी धोती
देश का हर गरीब अब बन गया बापू
टांग में जिसके बची है बस लंगोटी
और बन गया किसी नेता का भोपूं
लुट रहा है देश मेरा
हो रही है मिलावट
रो रहा है किसान मेरा
मिट रही है हाथ की लिखावट
फिर खड़ा है चौराहे पर
आज फिर भूखा मजदूर ,
बिलख रहे बच्चे सभी
सूख रहा नैनों का नीर
लोग ताने खड़े सीने पर उसके
मजबूरियां के तीखे भाले और तीर
और मजे कर रहे है निकम्मे खाते मालमत्ते ...
आज सब्जी की जगह उग रहे है कुकरमुत्ते
सरेआम अब भौंक रहे है. आदमी जैसे हो ये कुत्ते .................
*
चल पड़े अब दूसरी ओर
है जहाँ गाड़ियाँ की रेलमपेल और नौकरों का शोर
कोई हुक्का बजा रहा
कोई हुक्म बजा रहा
कोई लिए खड़ा रकाबी
थूकने को पान साहेब का है अभी बाकी
बच्चा बना बाबा ,बेटी बनी बेबी
साथ में नौकर के पानी की भी बोतल देखी
कोई बना दरबान
कोई तो कोचवान
देश सेवा में जुटे है लोग महान
करेंगे खुद काम तो कौन देगा सम्मान
साथ ले लेंगे कुछ बन्दुकधारी
खायेंगे मुफ्त सब ,फिर भी नहीं होगी उधारी
लूट रहे कुछ लोग
फिर है वो सज्जन ,भद्र लोग
यहाँ तो मांगते है अलग-अलग भेष में कुछ हट्टेकट्टे
शाम को फिर भून रहे नोटों के भुट्टे
आज सब्जी की जगह उग रहे है कुकरमुत्ते
सरेआम अब भौंक रहे है. आदमी जैसे हो ये कुत्ते .................
*
कोई भगवान का भक्ति का प्यारा
कोई मजहब का सितारा
हर तरफ एक चोर है ..
आदमी न हो मानों शोर है
भाग रहा दिन रात लेकर बस में ट्रेन में
कभी जहाज में अपने गीले सूखे कपड़ेलत्ते ....
आज सब्जी की जगह उग रहे है कुकरमुत्ते
सरेआम अब भौंक रहे है. आदमी जैसे हो ये कुत्ते .................
*
बदलेगा कब यह शहर मेरा
बदलेगी कब ये सारी फिजायें
उग रही है हर खेत में आतंक की नागफनी और केक्टस
दिख रहा है आदमी बस बेदम और बेबस
चल रहे है खेल सारे ,लग रहे है अट्ठे पर सत्ते ....
आज सब्जी की जगह उग रहे है कुकरमुत्ते !!
सरेआम अब भौंक रहे है आदमी जैसे हो ये कुत्ते |||
*
रामकिशोर उपाध्याय

एक ग़ज़ल

बहर - बहरे मुतकारिब मुसमन सालिम =१२ २, १ २ २, १ २ २ , १ २ २
====
**
कहाँ से चले थे कहाँ आ गए तुम,
उठे फर्श से अर्श पर छा गए तुम |
*
न चांदी गिरी और बरसा न सोना ,
खजाना कहाँ से नया पा गए तुम |2
*
चली जब हवा बाग में इक सुहानी ,
गुलों पर नशा बन गज़ब ढा गए तुम |3*
*
हमें प्यार क्या है पता तक नहीं था,
इशारों इशारों गुल खिला गए तुम |4
*
तपिश जब बढ़ी जल उठे कुछ शरारे ,
अगन को बुझाने नज़र आ गए तुम |5
*
नयन पग निहारे,अधर तप्त मादक,
फ़िदा हो गए हम,अमां भा गए तुम |6
*
न बहके कदम शोहरत में जरा भी,
धरा से गगन तक सभी पा गए तुम |7
*
रामकिशोर उपाध्याय
२९ मई २०१५ -पूर्ण

बरेली के बाजार में झुमका गिरा रे ... -------------------------------------

मित्रो ,यह एक कविता लेखन में नया प्रयोग है जो आ. जयप्रकाश मानस जी से प्रभावित होकर किया है.
**
जब भूख ने आंते मरोड़ी
जब बीमार ने खाट तोड़ी
कमर में गिलट की करधनी जा गिरवी पड़ी
फिर भी बोली ये पायल निगोड़ी
झुमका गिरा रे ...बरेली के बाजार में ...झुमका गिरा रे ...
*
जब बचुआ की कमीज फटी
जब ददुआ की मिटटी की चिलम टूटी
जब अम्मा की धुएं से अँखियाँ फूटी
फिर भी मुस्कराकर बोली ये काजल नाशपिटी ..
झुमका गिरा रे ...बरेली के बाजार में.... झुमका गिरा रे ....
*
जब सत्ता ने आश्वासन दिया
जब नेता ने भरा जनता के पैसे से अपना बटुआ
जब इंजीनियर ने फर्जी मनरेगा रजिस्टर में अंगूठा लगा दिया
पति को सूखी रोटी खिलाकर पत्नी ने खुद पानी पिया
फिर भी बोली धरती के बिस्तर पर चूड़ियाँ
झुमका गिरा रे ...बरेली के बाजार में .....झुमका गिरा रे ..
*
जब वोट के लिए ऊँगली रंगी
जब बदलाव के लिए हुंकार भरी
जब वजीरों को चौराहे पर गाली पड़ी
कीचड़ से उठकर संसद की दालान में उतरी
फिर भी बोली हवा से टकराकर कानों की बालियाँ
झुमका गिरा रे ...बरेली के बाजार में .....झुमका गिरा रे...
*
मगर किसका ?
**
रामकिशोर उपाध्याय

ओ हरिया ! ला और डाल रे .....................


आज सारे गम भुला लूँ ,
इस गीले छप्पर को जलाकर
फिर यह सूखा तन तपा लूँ 
फिर इस दुनियां को दिखाकर ठेंगा
लम्बी -लम्बी डग भर लूँ
बोलता क्यों नहीं,जुबान तो बाहर निकाल रे ..
अरे ओ हरिया ! ला और डाल रे .....................
*
इस जग ने मुझको क्या दिया है ,
नाम मेरा एक रेखा के नीचे लिखकर ,
अंगूठा भी काटकर रख लिया है
सुखिया को भी स्कूल से निकाल दिया है,
और मत बोल खोपड़ी में उठ रहे है अब कई उलटे-सीधे सवाल रे ....
अरे ओ हरिया ! ला और डाल रे .....................
*
कल धन्नो की साडी फट गई
गाय की बछिया मर गई
एक बीघा में जो थी फसल वह भी इस बरसात में मर गई
और नौकर भये तो साहेब से उधार मांगने पर डांट पड़ गई
कौन अब बुरा माने और किसका करे मलाल रे ...
अरे ओ हरिया ! ला और डाल रे .....................
*
क्या कहते हो जी
सब कुछ हाज़िर है जी
ले आओ साड़ी , भर आओ फीस या
खरीद लो नमक या फिर भाजी
'क्रेडिट-कार्ड' को देखा नही जी
राजा बाबू दे गए है जी
बस खाते से पैसा निकाले जाओ
और जीये जाओ ...
फिर तो सारे हल हो गए जिंदगी के सवाल रे....
अरे ओ हरिया ! ला और डाल रे......................
*
अब तो अपने पास है
क्रेडिट कार्ड ...
और अब क्रेडिट पर चलेगी यह जिंदगी
एक क्रेडिट कार्ड जैसी ही
अच्छा किया जो बता दिया तूने
वरना मुझे तो नहीं था इसका तनिक भी ख्याल रे ...
अरे ओ हरिया ! ला तनिक और डाल रे......................
..............
**
रामकिशोर उपाध्याय

Wednesday 13 May 2015

ग़ज़ल

एक ग़ज़ल
----------------
२ १ २ , १ २ २ , २ २ १ , २ २
प्यार का नया मौसम फ़र्द क्यों है,
मिल गया सहारा,फिर दर्द क्यों है|
*
आ गयी नई खुशबू जब चमन में,
बागबाँ हुआ फिर वो जर्द क्यों है |
*
छट गयी फलक से जब धुंध सारी,
इन आइनों पर फिर गर्द क्यों है |
*
हुस्न खुद हुआ जब बेजार दिल से,
इश्क का ठिकाना फिर खुर्द क्यों है |
*
जल रहे मकानों में दीप जगमग ,
रात फिर उजालों की सर्द क्यों है|
*
थाम क्यों नहीं लेते हाथ बढ़कर,
प्रेम की छुहन में फिर बर्द क्यों है |
*
{ फ़र्द =एकाकी,ख़ुर्द =छुद्र/छोटा, बर्द= ठंड )
रामकिशोर उपाध्याय

एक फटा पैबंद --------------


न मैं नट हूँ ,न विदूषक ही 
जादू मुझे करना आता ही नही 
भूल जाता हूँ मन्त्र पूजा में
ध्यान 
लगता नहीं योग में 
रहता हूँ 
हर समय वियोग में 
व्यवहार में फिसड्डी कहते है सयाने लोग 
यह संसार मिला हैं मुझे उधार में 
हाँ , कुछ बरस का पट्टा 
जिसे किसी पटवारी ने 
चढ़ा दिया हो मेरे नाम लेकर मालमत्ता 
और उनकी प्रीत 
दुःख के इस असीम नाटक में एक सुखद संयोग 
कई लोग उपयोग करते है जैसे हो कोई पैबंद 
गोल-गोल परिधि में बंद 
किसी सुईं के नीचे 
छिदता,बिंधता 
और एक जगह जुड़ जाता 
फेविकोल के जोड़ की तरह ..
वैसे किसे अच्छा लगता है 
बने रहना एक पैबंद ...
कभी विद्रोह करके छूट भी जाता हूँ 
मैं सब जानता हूँ ...
तभी तो शायद मैं हूँ 
खुद अपने उघड़े नंगेपन पर 
चुपचाप अलग-थलग सा दिखता 
कभी नया सा पैबंद ...
तो कभी फटा सा पैबंद ....|
*
रामकिशोर उपाध्याय