Sunday 4 January 2015

2015 की पहली रचना ..


मैं वेदना हूँ प्रेम की 
-----------
मैं बह चली 
तमसा नदी के तट से
क्रोंच नर के व्याध के आखेट जनित
नारी क्रोंच की क्रंदन से ......
फिर उससे आगे बढ़ी
बन -बन भटकती
संग दशरथ नंदन के संग सीता सी
बिन बताये छोड़ गए
लक्ष्मण की उर्मिला सी
घट घट में खेलती मचलती
गोपियों के कृष्ण चिंतन सी
राधा का रूप धर
पत्नी बनने का सुख पाने सी
और कभी पत्नी बनकर
राधा न बन पाने की रुक्मणी सी
साड़ी खिचवाती सरेआम
कृष्ण को पुकारती द्रौपदी सी
**
कच्चा घड़ा लेकर
पानी में उतरकर डूबती सोहनी सी
नदी के उस पार बाट जोहते
माहिवाल सी
पल पल डूबती उतरती हीर सी
संगसार होते
जोगी बन गए राँझा की पीर सी
छलकपट का ग्रास बनी
जूलियट सी ..................
मैं आज भी बह रही हूँ
तमसा नदी से
बाल्मीकि के ह्रदय से निकलकर
रुकी नही हूँ मैं ..........
कभी मैदानों को लांघती
कभी मीरा को मरुथल को रोंद्ती
कभी कभी बड़े बड़े महलों में रुदाली सी
कभी नंगे पांव दौड़ती
गायों के खुरों से मिटटी उडाती
आज भी जिंदा हूँ मैं
शाश्वत ......
तमसा हो
यमुना हो
गोदावरी हो
या फिर गंगा की पावन धार हो
थार में हो या फिर मझधार में
मैं वेदना हूँ !
प्रेम की शाश्वत वेदना हूँ !!
आज भी हर कवि की प्रिया बनकर रहती हूँ ..
सदा की तरह 

मैं वेदना हूँ प्रेम की  -------------------|
**
रामकिशोर उपाध्याय
5.1.2015

2 comments:

  1. अत्यन्त सुन्दर एवं भावपूर्ण रचना उपाध्याय जी। बधाइ

    ReplyDelete
  2. Ravindra Munshi जी इस आत्मीय सराहना के लिए ह्रदय से आभार

    ReplyDelete